नागा संन्यासी बनने की कठिन राह: 108 डुबकी, पिंडदान और ब्रह्मचर्य की कठिन परीक्षा
जी एन न्यूज संवाददाता :
1 फरवरी 1888 को प्रयागराज में कुंभ मेले का आयोजन हो रहा था। इस दौरान ब्रिटेन के अखबार ‘मख्जान-ए-मसीही’ में कुंभ मेले से जुड़ी एक खबर छपी। खबर में लिखा गया- "कुंभ मेले में 400 नग्न साधुओं ने जुलूस निकाला। लोग इनके दर्शन के लिए दोनों ओर खड़े थे और कुछ लोग इनकी पूजा भी कर रहे थे। इस जुलूस में पुरुषों के साथ महिलाएं भी शामिल थीं। इन साधुओं के लिए रास्ता बनाने की जिम्मेदारी एक अंग्रेज अफसर निभा रहा था। ब्रिटेन में जहां नग्नता के लिए सजा का प्रावधान है, वहीं भारत में नग्न साधुओं के जुलूस में एक जॉइंट मजिस्ट्रेट रैंक का अफसर तैनात किया गया। यह वाकया शर्मनाक है।”
इसके बाद, ईसाइयों की संस्था ‘क्रिश्चियन ब्रदरहुड’ के अध्यक्ष आर्थर फोए ने ब्रिटेन के एक सांसद को पत्र लिखकर कहा, "नग्न साधुओं के इस जुलूस से शिक्षित हिंदू समाज भी लज्जित हो जाता है। फिर इस जुलूस में एक अंग्रेज अफसर की तैनाती क्यों की गई? यह ईसाई धर्म के लिए अपमानजनक है। ऐसा लगता है कि भारतीयों ने अंग्रेजों को झुका दिया है।”
16 अगस्त 1888 को इस पत्र का जवाब देते हुए सरकार ने लिखा, "इलाहाबाद और अन्य स्थानों पर यह परंपरा लंबे समय से चली आ रही है। इन साधुओं को हिंदू समाज में अत्यंत पवित्र माना जाता है। हमारी दृष्टि में इसमें कोई अनुचित बात नहीं है।”
गौरतलब है कि यह जुलूस निकालने वाले साधु ‘नागा संन्यासी’ थे। कुंभ मेले के दौरान पहला शाही स्नान इन्हीं नागा संन्यासियों द्वारा किया जाता है। ‘महाकुंभ के किस्से’ की चौथी कड़ी में जानिए नागा संन्यासी बनने की कहानी...